1942 में तीन हजार लोगों ने राजपुर थाना पर हमला कर फहराया था तिरंगा
जब केदारनाथ कहार ने कड़ककर कहा ...तुम नौकरी छोड़ दो ..हमारे आंदोलन का हिस्सा बनो






पंकज कमल
नेशनल आवाज़ :- ‘वक्त नमन करने का है ,आजादी के दीवानों को’ इस महोत्सव के मौके पर आजादी के परवानों को’ वह दिन था भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 20 अगस्त 1942 का जब ब्रिटिश कालीन राजपुर थाना पर तीन हजार क्रांतिकारी दस्तों ने एक साथ हमला बोलकर थाना परिसर के दूरसंचार सेवा को खत्म कर दिया.तोड़ फोड़ भी किया गया.क्रांतिकारियों के हुजूम देख पुलिस भी कांप उठी.
घण्टों उपद्रव के बाद शान के साथ तिरंगा झंडा फहराया था. इस घटना के बाद स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़ने के लिए ब्रिटिश पुलिस ने क्षेत्र के विभिन्न गांव में लगातार छापेमारी अभियान चलाया. जिस अभियान में फिरंगीयों से बचने के लिए आजादी के दीवानों ने रात -रात भर बिना खाना खाए कई दिनों तक गन्ना के खेतों में रात गुजारा. उन दिनों क्षेत्र के कई जगहों पर छोटे-छोटे घने जंगल होते थे. जिनमें कोनौली वन, सागरा वन था जहां लोग छिप जाते थे.इस स्वतंत्रता आंदोलन में प्रखंड के रौनी गांव के रहने वाले महान स्वंतत्रता सेनानी नंदलाल सिंह भी अपने पढ़ाई के दौरान ही स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ें.
पहली बार 1921 में गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में भी भाग लिया.फरवरी 1930 में जमौली पोखरा पर कंश मेला में नमक कानून को तोड़ने के लिए प्रचार प्रसार किया था.नमक सत्याग्रह में भाग लेने से इन्हें 1931 में अंग्रेजी पुलिस ने पकड़कर जेल भेंज दिया.कुछ दिनों बाद जेल से बाहर आने के बाद भी इनकी गतिविधियां और तेज हो गयी.गांव-गांव में सभा कर युवाओं को संगठित करने लगे.तभी 1942 में भारत छोड़ों आंदोलन की शुरूआत हुयी.जिसमें इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाते हुए 20 अगस्त 1942 को लगभग तीन हजार लोगो के साथ मिलकर राजपुर थाने पर हमला कर दिया.
थाना परिसर में झंडा भी फहराया.संचार साधनों को नष्ट किया गया.इस घटना के बाद पुलिस से बचने के लिए फरार हो गये.पुलिस इन्हें दिन रात खोज रही थी.11 दिसंबर 1942 को कोनौली के जंगल में यह अपने 25 साथियों के साथ बैठक कर रहे थे.तभी पुलिस ने इन्हें पकड़ लिया.जिन्हें बक्सर जेल के बाद 5 जून 1943 को पटना कैम्प जेल भेंज दिया गया.सजा पुरी होने के बाद 27 अक्टूबर 1943 को रिहा किये गये.जेल से आने के बाद भी सक्रिय भूमिका में रहे.
1947 में देश की आजादी के बाद इन्हें काफी खुशी हुई. जिसे आजाद भारत में सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया. वर्षों तक लोगों को आजादी की कहानी बताते रहें.इन्ही के सहयोगी रहे संगरॉव गांव के बाजमीर खां भी स्वतंत्रता सेनानी हैं.इन्होंने भी 1921 ई में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन में मुख्य रूप से भाग लिया.1941 में छह माह के लिए जेल भेंजे गये साथ ही इनके उपर 50 रूपये का अर्थ दण्ड भी मिला था.आर्थिक दण्ड नहीं देने पर इन्हें दो माह का अतिरिक्त कारावास रहना पड़ा.
20 अगस्त 1942 के आंदोलन में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी. राजपुर थाना पर झंडातोलन के समय तत्कालीन दरोगा जगदीश सिन्हा उर्फ कड़े खां इनके पीछे पड़ गया.तब से यह भी फरार हो गये.इसके बाद भी यह क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे. इसी आंदोलन के हिस्सा रहे संगरॉव गांव के रहने वाले केदारनाथ कहार भी बाजमीर खां के काफी सहयोगी रहे.
यह 9 अगस्त 1942 को बक्सर के आंदोलन में भाग लेकर अपने क्षेत्र के ईंटवा,खीरी,मंगरॉव, संगरॉव के अलावा अन्य गांवों में पहुंचकर युवाओं को संगठित किया.यह भी राजपुर थाना पर 20 अगस्त 1942 को झंडा फहराने में सक्रिय थे.इन्होंने ही अपनी कड़कती हुयी आवाज में थाना पर मौजूद तत्कालीन दारोगा एन के सिन्हा,छोटा दारोगा चन्द्रशेखर सिंह,जमादार को निर्देश देते हुए कहा कि तुमलोग यह नौकरी छोड़ दो.हमारे आंदोलन का हिस्सा बनो.
तभी एन.के.सिन्हा ने अपनी रिवाल्वर निकालकर गोली चलाने का प्रयास किया.जिससे मौजूद भींड़ तीतर बितर हो गयी.केदारनाथ कहार वहीं से फरार हो गये.11 फरवरी 1943 को पकड़े गये.लगभग तीन वर्षो तक जेल में रहे.1946 में इन्हें रिहा किया गया.फिर भी क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे.देश की आजादी के बाद इनके मरणोपरान्त विधान सभा सदस्य जगनारायण त्रिपाठी ने 16 सितम्बर 1973 को भारत सरकार के गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर इनके परिवार के लिए पेंशन देने की अनुशंसा किया था.फिर भी इनके परिवार को आज भी कुछ नहीं मिलता हैं.

