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कुशल कूटनीति व प्रशासक की बदौलत इस तरह फरीद खां बन गया ” हिंदुस्तान का बादशाह “

मुगल साम्राज्य के पतन में मिल का पत्थर साबित हुआ चौसा का युद्ध, दर दर भटकने को मजबूर हो गया हूमायूं

नेशनल आवाज़
विनोद कुमार सिंह
चौसा. : भारतीय इतिहास अपने आप में कई रहस्य और कहानियों को समेटे हुए हैं. जिसमें से एक है बक्सर के चौसा में मुगल बादशाह हुमायूं और अफगानी शासक शेरशाह के बीच हुआ युद्ध. 1539 में हुए इस युद्ध में हुमायूं की हार हुई, लेकिन इस युद्ध के बाद एक मामूली भिस्ती को दिल्ली की गद्दी पर एक दिन के लिए बैठने का मौका जरूर मिला. मुगल शासक बाबर की मौत के बाद हुमायूं के कंधों पर मुगल सम्राज्य को स्थापित करने की एक बड़ी जिम्मेवारी थी.

युद्ध स्मारक स्थल चौसा

क्योंकि बहलूल खान लोधी की हार के बाद भी अफगानों का दबदबा हिंदुस्तान में बना हुआ था. ऐसे में हुमायूं इस दबदबे को खत्म करने के लिए अफगानों की ओर बढ़ चला. 1531 में देवरा का युद्ध जीतने के बाद हुमायूं की सेना अफगानी शासक शेरशाह की तरफ बढ़ी. शेरशाह एक कुशल योद्धा था. चूंकि वो जानता था कि हुमायूं के पास विशाल सेना है, ऐसे में उसे ऐसी जगह रोकना है, जहां भौगोलिक फायदा मिले. ऐसे में उसने शेरशाह को हराने के लिए बिहार के बक्सर जिले के चौसा में कर्मनाशा नदी व गंगा किनारे अपना डेरा डाल दिया. शेरशाह ये अच्छी तरह जानता था कि कब गंगा खतरनाक हो जाती है. शेरशाह सूरी ने वक्त का इंतजार किया. बरसात शुरू हुई और गंगा का पानी बढ़ने लगा, तो शेरशाह 25 जून 1539 की मध्य रात्रि को हुमायूं की सेना पर आक्रमण कर दिया. हुमायूं की इस युद्ध में बुरी तरह हार हुई और वह जान बचाने के लिये गंगा में कूद गया.

 

हुमायूं को हरा शेरशाह ने किया था दिल्ली फतह, युद्ध में हार के बाद अफगानों को छोड़ना पड़ा था भारत

 

15वीं सदी के मध्य में गंगा व कर्मनाशा नदी के संगम पर मुगल शासक व अफगानी शासक के बीच हुए महज कुछ घंटे की युद्ध ने चौसा का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में दर्ज करा दिया. और भारतीय इतिहास में बादशाहियत का नया युग का आगाज करा गया. आज ही के दिन 26 जून 1539 ई.में अफगानी शासक ने महज एक घंटे के युद्ध में मुगल बादशाह को जान बचाने नदी में कूदकर भागने को मजबूर कर दिया था. बात मुगल साम्राज्य को शिकस्त देकर दिल्ली की तख्त पर कब्जा जमाने वाले अफगानी शासक शेरशाह की हो रही है. जिसने अपने महज पांच वर्षो के शासनकाल में दिल्ली से पेशावर तक ग्रैंड ट्रंक रोड, सरायखाने, वृक्षारोपण तथा सिक्कों का पहली बार प्रचलन किया जो आज भी भारत में विद्यमान है. देश में आज भी लागू राजस्व वसूली,भूमि पैमाईशी,संवाद सम्प्रेषण जैसी खोज शेरशाह की ही देन है.

 

 

 

निर्भिक,बहादुर व कुशल सैन्य क्षमता के बदौलत शेरशाह ने किया था दिल्ली फतह

 

1472 में जन्में शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद खां था. वह निर्भिक, बहादुर, बुद्धिमान कुशल सैन्य प्रशासक होने के अलावा प्रशासन में भी असाधारण कौशल और योग्यता रखने वाला व्यक्ति था. उसके दादा इब्राहिम सूरी और पिता हसन सूरी सुल्तान बहलोल लोदी के समय 1482 ईसवी में अफगानिस्तान के गोमल नदी के तट पर स्थित सरगरी से रोजगार के लिए भारत आए थे. इन लोगों को भारत में महाबत खां सूरी व जमाल खां के यहां नौकरी करनी पड़ी थी. 1499 ई. में जमाल खां ने हसन खां को सहसराम (सासाराम) की जागीर दे जागीरदार बना दिया. शेरशाह का बचपन इसी सहसराम में बीता और वह यहां का जागीरदार भी बना.

सन 1539 में हुमायूँ को पराजित कर दिल्ली की गद्दी पर बैठ हिंदुस्तान का बादशाह बना. मुगल सम्राट हुमायूं का सेनापति हिन्दूबेग पर कब्जा कर वहां से अफगान सरदारों को भगा देना चाहता था, तो वहीं दूसरी तरफ मुगल भी पूरे भारत में सिर्फ अपना कब्जा जमाने चाहते थे. ऐसी स्थिति में अपने-अपने राज्य की विस्तार नीति को लेकर चलाए गए विजय अभियानों के दौरान मुगलों और अफगानों के बीच जंग छिड़ गई और मुगल शासक हुमायूं एवं अफगार सरदार शेरशाह सूरी एक-दूसरे के प्रबल दुश्मन बन गए. वहीं जब मुगल सम्राट हुमायूं मुगल साम्राज्य के विस्तार के लिए अन्य क्षेत्रों पर फोकस कर रहा था और अफगानों की गतिविधियों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था. जिनका शेरशाह सूरी ने फायदा उठाया और आगरा, कन्नौज, जौनपुर, बिहार आदि पर कपना कब्जा जमा लिया एवं बंगाल के सुल्तान पर आक्रमण कर बंगाल के कई बड़े किले और गौड़ क्षेत्र में अपना अधिकार जमा लिया.जिसके बाद हुंमायूं को शेरशाह की बढ़ती शक्ति जब बर्दाश्त नहीं हुआ और दोनों के बीच संघर्ष छिड़ गया. शेरशाह पराक्रमी होने के साथ-साथ एक कूटनीतिज्ञ शासक भी था, जिसने अपना एक दूत भेजकर मुगलों की सारी कमजोरियों का पता लगा लिया था और मुगलों से युद्ध के लिए सही समय का इंतजार करने तक मुगलों को शांति रुप से संधियों में उलझाए रखा था फिर

 

 

अचानक 26 जून, 1539 में उत्तर प्रदेश और बिहार बॉर्डर के पास कर्मनाशा नदी के किनारे चौसा नामक एक कस्बे के पास शेरशाह सूरी ने मुगलों की सेना पर रात के समय अचानक आक्रमण कर दिया.जिसके चलते अपनी जान बचाने के लिए कई मुगल सैनिकों ने गंगा नदी में कूदकर अपनी जान दे दी तो बहुत से मुगल सैनिकों को अफगान सैनिकों द्धारा तलवार से मार दिया गया. ऐसे में मुगल सेना का काफी नुकसान हुआ और मुगल सम्राट हुमायूं कमजोर पड़ गया, जिसके बाद हुमायूं युद्ध भूमि छोड़कर वहां से गंगा में कूदकर भाग निकला और किसी तरह एक भिश्ती की मदद से अपनी जान बचाई और इस तरह अपनी कुशल कूटनीति के चलते शेरशाह सूरी की चौसा के युद्द में जीत हुई थी. चौसा के युद्ध में शेरशाह सूरी की जीत के बाद उसे बंगाल और बिहार का सुल्तान बनाया गया. इसके बाद ही उसने ”शेरशाह आलम सुल्तान-उल-आदित्य” की उपाधि धारण की. चौसा के युद्ध के बाद अफगानों का प्रभुत्व भारत में काफी बढ़ गया और अफगानों ने आगरा समेत मुगलों के कई राज्यों पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया.चौसा के युद्ध में जीत की खुशी में शेरशाह ने अपने नाम के सिक्के ढलवाए, ”खुतबा” पढ़वाया और इसके साथ ही फरमान जारी किए.चौसा के युद्ध के बाद मुगलों की शक्ति कमजोर पड़ गई और मुगल सम्राट हुमायूं का लगभग पतन हो गया. चौसा के युद्ध के बाद 1540 ईसवी में हुमायूं और शेरशाह के बीच में बलग्राम और कन्नौज का युद्ध हुआ और इस युद्द में भी हुंमायूं को हार का सामना करना पड़ा और भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

 

26जून 1539 की वह रात मुगल सम्राज्य के लिए बन गई काली रात

 

जिला मुख्यालय से महज 10 किमी. पश्चिम गंगा व कर्मनाशा नदी के संगम पर बसे चौसा मैदान पर हुए महज कुछ घंटे की युद्ध में विश्व विजेता के तौर पर उभर रहे मुगल सम्राट हुमायूं को शेरशाह की गुरिल्ला युद्ध ने भागने को मजबूर कर दिया. और वह रात मुगल सम्राज्य के लिए काली रात बन गई. गंगा और कर्मनाशा के संगम पर बसे चौसा के मैदान पर मुगल बादशाह हुमायूं और मामूली चुनार राज्य का अफगानी शासक शेरशाह के बीच हुए युद्ध में हुमायूं की हार हुई जान बचाने के लिए उफनती गंगा नदी में कूद पडा और डूबने लगा तभी चौसा का निजाम नाम का भिस्ती ने उसे डूबने से बचा लिया.

 

 

वर्षो बाद जब हुमायूं दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो नदी में डुबने से बचाने के एहसान के बदले निजाम भिस्ती को एक दिन के लिए दिल्ली का तख्तोताज पहना उसे एक दिन गद्दी सौंप दी.एक दिन की बादशाहियत में निजाम ने चमडे का सिक्का चला जो भारत के कई प्रमुख संग्रहालयों में आज भी मौजूद है. चौसा के मैदान पर हुए उक्त ऐतिहासिक युद्ध में मुगल सेना के आठ हजार आमिर सैनिक मारे गये थे.यूद्ध में हार के बाद हुमायूं सहमा हुआ शेरशाह से भागता फिरता रहा. शेरशाह का शासनकाल प्रशासनिक क्षमता, सैन्य क्षमता, युद्ध नीति में स्वयं नेतृत्वकर्ता, मानवता व भारतीय संस्कृति का परिचायक व प्रेरणा स्रोत माना जाता है. जिस ऐतिहासिक स्थल ने एक ऐसे बादशाह का उदय कराया जिसकी कार्य प्रणालीयां आज भी कायम है. अफसोस आज ऐसे बादशाह का उदय करने वाले इस सरजमीं को अभी तक उपेक्षित ही रखा गया है. ये अलग बात है कि चौसा के गढ के गर्भ कितने साक्ष्य दबे है इसको पता लगाने के लिए राज्य सरकार ने कला संस्कृति विभाग द्वारा यहाँ पर करोड़ों रुपये खर्च कर खुदाई का कार्य कराया गया परंतु वो भी छह वर्षों से बंद पडा है.

 

 

हालांकि खुदाई के दौरान खनन विभाग को चौसा में आज से करीब 5000 वर्ष पूर्व के मानव जीवन होने के अवशेष प्राप्त हुए है. तथा गढ के गर्भ में विशाल मंदिर होने का अनुमान लगाया जा रहा है. महज कुछ घंटे की ऐतिहासिक यूद्ध से तीन बादशाहों के बादशाहियत का का गवाह उक्त युद्ध भूमि के सहेजकर रखने की जरुरत है अन्यथा इसका वजूद इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जायेगा.

 

 

 

तीन-तीन बादशाहों का उदय करने वाली ऐतिहासिक स्थली वर्षो से है उपेक्षित

 

 

 

जिला मुख्यालय से मात्र दस किलोमीटर पश्चिम बक्सर सासाराम मुख्य मार्ग पर स्थित चौसा की वह मिट्टी जिसने हिंदुस्तानी सल्तनत के तीन-तीन बादशाहों को बनते बिगडते पला बढा है. अफसोस कि आजतक इस एतिहासिक धरोहर को संजोने का सफल प्रयास कोई सरकार ने नहीं उठाया. यहाँ मिट्टी पर वीरता की इबादत लिखने वाले शेरशाह का पांच वर्षो का शासनकाल काल आज भी प्रासंगिक है.

 

11जून2021 से नगर पंचायत चौसा आस्तित्व में आ चुके चौसा को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने का सपना हजारों की आबादी वर्षो से देखती आ रही है. अब देखना यह है कि नगर पंचायत बनने के बाद अभी भी उक्त युद्ध स्थली कबतक पर्यटन के रूप में विकसित हो पा रहा है. बतादें कि 2015 में सरकार ने चौसा वासियों को ऐैतिहासिक शेरशाह विजय स्थली चौसा को पर्यटक स्थल में विकसित करने का सपना दिखाया गया था और करीब 80 करोड़ की राशि से विजय स्थली को पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करने खाका तैयार किया गया जो पिछले पांच सालों से ठंडे बस्ते मे है.

 

जिसके चलते यहाँ खुदाई में प्राप्त दुर्लभ टेराकोटा की सैकड़ों मूर्तियां उचित रख रखाव के कारण बर्बाद हो गई तो कुछ पटना संग्रहालय में रखी गई है. गौरतलब हो कि विश्व प्रसिद्ध अफगानी शासक शेरशाह और मुगल बादशाह हुमायूं की युद्ध भूमि व शेरशाह की विजय स्थली का काया-कल्प कराने हेतु सरकार के विशेष सचिव द्वारा जिला विकास शाखा बक्सर से उक्त स्थली पर पर्यटन की संभावना को देखते हुए रिपोर्ट मांगे जाने पर प्रभारी पदाधिकारी जिला विकास शाखा के निर्देश के आलोक में तात्कालिक बीडीओ द्वारा प्रखंड के पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर शेरशाह सुरी विजय स्थली चौसा को पर्यटक स्थल के रुप में सौंदर्यीकरण हेतु जांच करने के पश्चात उक्त युद्ध स्थली पर पर्यटन की दृष्टि से क्या क्या संभावित कार्य किया जा सकता है उसका खाका तैयार कर अगस्त 2015 और जनवरी 2016 तथा 2017 और 2018 में चौसा युद्ध स्थली को विकसित करने के लिए शेरशाह विजय स्थल पंहूच पथ चौसा बक्सर मुख्य मार्ग पर बारामोड पर गेट निर्माण,पंहुच पथ से चौसा मैदान तक जाने वाली सडक का पीसीसी ढलाई व दोनों तरफ नाली निर्माण,सडक के दोनों तरफ स्ट्रीट लाईट,भूखंड का मापन कर सुनियोजित ढंग से चाहरदीवारी निर्माण , संग्रहालय, शौचालय, गेस्ट हाउस,पार्क का निर्माण,पेयजल की व्यवस्था, शीलापट्ट पर शेरशाह और हुमायूं के बीच युद्ध का सचित्र नक्कासी करना, पर्यटन विभाग द्वारा खुदाई का कार्य समय सीमा में करवाते हुए चारों तरफ मनरेगा से वृक्षारोपण, रेलवे स्टेशन चौसा पर स्थल मार्ग एवं युद्ध स्तंभ का नक्कासी,मैदान पर पंहूचने हेतु रेलवे स्टेशन एवं बस स्टैंड से पर्यटन विभाग से गाड़ी का संचालन करने आदि का अनुमानित करीब 80 करोड का प्रस्ताव जिला विकास शाखा को भेजा गया था. जिसमें अभी तक मेन सड़क व चाहरदीवारी का कार्य ही पूर्ण हो सका है जबकि मनरेगा विभाग द्वारा लाखों रूपये खर्च कर चौसा युद्ध स्थली को पार्क के रूप में डेवलप कराने का कार्य किया गया. जहाँ सेल्फी प्वाईंट बनाया गया. परंतु उचित देखभाल की कमी के चलते पार्क में लगे दर्जनों पौधे या तो सुख गए अथवा उसे क्षतिग्रस्त कर दिया गया.

 

 

और एक दिन का बादशाह बन गया चौसा का निजाम भिस्ती

भिस्ती की फाइल फोटो

इतिहास के पन्ने में दर्ज महज कुछ घंटे की युद्ध ने चौसा के एक मामूली भिस्ती को चौबीस घंटे के लिए दिल्ली सल्तनत का ताज पहना दिया.बक्सर जिला मुख्यालय से 10 किमी. पश्चिम गंगा व कर्मनाशा नदीयों के तट पर बसा चौसा गांव. सन 1539 में यही हुई थी मुगल बादशाह हुमायूं और अफगानी शासक शेरशाह के बीच लडाई. जिसमें गोरिल्ला युद्ध में पारंगत शेरशाह हुमायूं पर भारी पडा और मुगल बादशाह को अपनी जान बचाने के लिए उफनती गंगा में कूदना पडा.

 

युवा अफगानी शासक से युद्ध में लडकर थक चुके हुमायूं गंगा नदी में डूबने लगा तभी नदी में मौजूद चौसा के निजाम भिस्ती की नजर एक डूबते हुए व्यक्ति पर पडी उसने अपनी जान पर खेलकर मसक के सहारे डूबते हुए हुमायूं को गंगा से पार कराया . तब उसे क्या पता था कि जान बचाने के बदले उसे दिल्ली का तख्तोताज मिल जायेगा. इस यूद्ध में परास्त हुमायूं जब दोबारा दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो उसकी जान बचाने वाले चौसा के निजाम भिस्ती की याद आई और उसने निजाम भिस्ती को चौसा से बुलाकर एक दिन के लिए दिल्ली सल्तनत का बादशाह बना दिया. 24 घंटे के लिए मिली गद्दी के दरम्यान भिस्ती ने अनुठा फैसला लेते हुए चमडे का सिक्का चलवा दिया. ये सिक्के आज भी पटना संग्रहालय समेत देश के अन्य म्यूजियमों में रखे हुए है. और बहादुरी व अनुठे निर्णय से चौसा के निजाम भिस्ती का नाम हिंदुस्तानी इतिहास के पन्ने में बादशाह के रुप में दर्ज हो गया. अजमेर शरीफ में ख्वाजा दरगाह के मेन गेट के बगल में निजाम भिस्ती का मजार है जहाँ पर आज भी सलाना उर्स लगता है.

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