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अपनी मंजिल का रास्ता स्वयं बनाये
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क्रांति की धार विचारों के शान पर तेज होती है । भगत सिंह
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बच्चों को जरूर दिखाए सर्कस कुछ ही दिनों बाद किताबों में रहेगी याद : वेन्यू नायर

नेशनल आवाज़/बक्सर :- भारतीय संस्कृति में कला का अपना एक अलग ही महत्व है.वर्षो पूर्व सर्कस जैसी कला को देखने के लिए लोगों की भारी भींड़ उमड़ पड़ती थी. आज बदलते समय ने इस सर्कस जैसी कला को कुंद कर दिया है, जो आने वाले दिनों में यह सिर्फ किताबों में ही यादें बनकर रह जाएंगे. वर्तमान पीढ़ी के बच्चों को इस सर्कस को जरूर दिखाएं. यह बातें ग्रेट जैमिनी सर्कस के प्रबंधक वेन्यू नायर ने अपील करते हुए कहा कि विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन बच्चे देखकर मन को खुश एवं कुछ सीखने की ललक रखते हैं .देश में 95 फीसदी सर्कस खत्म हो चुका है. महज 5 फीसदी जिंदा है तो सिर्फ सर्कस चलाने वाले कलाकारों व कुछ ऐसे पेरेंट्स जो अपने बच्चों को सर्कस से आज भी जोड़े रखना चाहते हैं. जिस तरह से इसका क्रेज कम हो रहा है उसे देखकर लग रहा है कि आने वाले समय में कहीं बातों और किताबों में ही न सिमट जाए.इसलिए बक्सर शहर के लोगों से गुरुवार को अपील करते हुए ग्रेट जैमिनी सर्कस के प्रबंधक वेन्यू नायर ने कहा बक्सर शहर में महज कुछ दिनों का मेहमान है ये सर्कस, अपने बच्चों के लिए यादगार बनाने के लिए मौका का जरूर लाभ उठावें. नगर के बुनियादी विद्यालय के पीछे मेला मैदान में हर रोज तीन शो दिखाया जा रहा है.

कला का प्रदर्शन करते कलाकार

 महाराष्ट्र से हुई थी सर्कस की शुरुआत

भारत में सर्कस की शुरुआत महाराष्ट्र के विष्णुपंत छत्रे ने की थी.वे कुर्दूवडी रियासत में चाकरी करते थे. उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना. इसके बाद ही वहां के राजा ने भारत की पहली सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ खोली। इसमें ये खेल दिखाया जाता. बाद में उनका साथ दिया केरल के कीलेरी कुन्नीकानन ने. वह भारतीय मार्शल आर्ट ‘कालारी पायटू’ के मास्टर थे. 1901 में कोल्लम शहर केे पास गांव चिरक्कारा में उन्होंने बोनाफाइड सर्कस स्कूल की स्थापना की. इसके बाद इनके एक शिष्य ने कुन्ही मेमोरियल सर्कस तथा जिमनास्टिक ट्रेनिंग सेंटर शुरू किया.  दुनिया का सबसे पुराना सर्कस पुराने रोम में था. भारत के मशहूर सर्कस में ग्रेट रॉयल सर्कस (1909), ग्रैंड बॉम्बे सर्कस (1920), ग्रेट रेमन और अमर सर्कस (1920), जेमिनी सर्कस (1951), राजकमल सर्कस (1958), रैंबो सर्कस (1991) और जम्बो सर्कस (1977) हैं.

तैयार होता सर्कस का जोकर

 

कला का करें सम्मान

वेन्यू नायर ने बताया की सर्कस में करतब दिखाने वाले किसी कलाकार से कम नहीं होते.क्योंकि किसी को हंसाना और मनोरंजन करना किसी कला से कम नहीं. लोगों को इस कला की कद्र करनी चाहिए और सर्कस देखने आना चाहिए.उन्होंने बताया- इस बार 70  कलाकार यहां परफॉर्म कर रहे है जिसमे लगभग 10 विदेशी कलाकार है. शहर केस आईटीआई रोड स्थित मेला मैदान में  चलने वाली सर्कस में रोजाना दो से ढ़ाई घंटे के तीन शो चल रहे है, जो दोपहर 1 बजे शुरू होता है. इनमें जिमनास्टिक, रिंग डांस, हवाई झूला और अन्य कला भी आर्टिस्ट परफॉर्म कर रहे है.

भारतीय कला का प्रदर्शन करते कलाकार

दर्शक नहीं होने से हो रहा घाटा

वेन्यू नायर ने बताया की सर्कस का एक कैंप लगाने में काफी खर्चा आता है.ऐसे में जब लोग कम आते हैं तो हमें घाटा उठाना पड़ता है.बस सर्कस बचाने के लिए ही इसे चला रहे हैं.कब बंद हो जाए यह कह नहीं सकते. एक दौर ऐसा था जब सर्कस के शो हाउस फुल जाया करते थे और अगला शो भी वेटिंग में होता था. 1995 में 330 के करीब सर्कस थे और अब गिने चुने ही बचे हैं.

 

जानवरों को हटाने से सर्कस में आई कमी

उन्होंने कहा की किसी एक वजह से क्रेज कम नहीं हुआ. जब जानवरों को बैन किया गया तो सबसे पहले देखने वालों में कमी आई.2002 तक तो सभी सर्कस से जानवरों को उठाकर जंगल में छोड़ दिया गया.इसके बाद टीवी, इंटरनेट, मॉल की वजह से क्रेज कम हुआ.अब युवा पीढ़ी मॉल में जाकर तो कभी इंटरनेट पर समय बिताती है.यह उनका मनोरंजन का जरिया हैं.

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